उत्तराखंड का इतिहास अत्यंत रोचक और गौरवपूर्ण है। इसे तत्कालीन गढ़वाल और कुमाउं के इतिहास के माध्यम से समझा जा सकता है। यहां कई महान राजाओं और सम्राज्यों जैसे कुणिन्द, गुप्त, कत्यूरी, चंद, पवार, पाल आदि की झलकियां हमें इतिहास के माध्यम से मिलती हैं। इतिहास में दर्ज अभिलेखों के अनुसार उत्तराखंड में कई शासकों औेर राजवंशों ने बारी-बारी शासन किया जिनमें प्रमुख है…
कुणिन्द शासनकाल:
अभिलेखों के अनुसार कुणिन्द उत्तराखंड पर शासन करने वाली पहली राजनैतिक शक्ति थी। कुणिन्द शासनकाल के दौरान कर्तपुर राज्य की स्थापना हुई। जिसमें उत्तराखंड, हिमांचल प्रदेश तथा रोहिलखंड का उत्तरी भाग शामिल था। इसके पश्चात नागो ने कुणिन्दो को पराजित कर्तपुर राज्य पर अधिकार कर लिया।
नागो के बाद कन्नोज के मौखरियो ने यहां पर शासन किया। इस वंश का अंतिम शासक गृह्वर्मा था। गृह्वर्मा को हर्षवर्धन ने पराजित कर उसकी हत्या कर दी और शासन अपने हाथ में ले लिया।
कर्तिकेयपुर राजवंश :
हर्ष की मृत्यु के बाद उत्तराखंड पर अनेक छोटे–छोटे शासको ने शासन किया। 700 ई. में कर्तिकेयपुर राजवंश की स्थापना हुई। इस वंश के तीन से अधिक परिवारों ने उत्तराखंड पर 700 ई. से 1030 ई. तक लगभग 300 साल तक शासन किया। इस राजवंश को उत्तराखंड का प्रथम ऐतिहासिक राजवंश कहा जाता है। इस वंश का प्रथम शासक बसंतदेव था। कर्तिकेयपुर शासनकाल में ही आदि गुरु शंकराचार्य उत्तराखंड आये थे। उन्होंने बद्रीनाथ व केदारनाथ मंदिरों का पुनरुद्धार कराया। 820 ई. में केदारनाथ में उन्होंने अपने प्राणों का त्याग किया।
परमार वंश:
9 वीं शताब्दी तक गढ़वाल में 54 अलग अलग छोटे बड़़े गड़़ों में विभाजित था। इनमे सबसे शक्तिशाली चांदपुर गड़ के राजा भानुप्रताप ने मालवा के शासक कनकपाल से अपनी बेटी का विवाह किया। कनकपाल ने 888 ई. में चाँदपुरगढ़ (चमोली) में परमार वंश की नींव रखीं। इसी वंश के 37वें राजा अजयपाल ने सभी गढ़पतियों को जीतकर गढ़वाल भूमि का एकीकरण किया।
कत्यूरी शासनकाल :
कत्यूरी राजवंश भारत के उत्तराखण्ड राज्य का एक मध्ययुगीन राजवंश था। उत्तराखंड में गढ़वाल व कुमाऊं पर कत्यूरियों का शासनकाल सन् 740 ई. से 1000 ई. तक रहा। उन्होंने अपने राज्य को ‘कूर्मांचल’ कहा, अर्थात ‘कूर्म की भूमि’। जिससे इस स्थान को इसका वर्तमान नाम, कुमाऊँ मिला। कत्यूरी वंश का अंतिम शासक ब्रह्मदेव था जो कि एक अत्याचारी शासक था।
चन्द राजवंश :
कुमाऊं में चन्द और कत्यूरी प्रारम्भ में समकालीन थे और उनमें सत्ता के लिए संघर्ष चला जिसमें अन्त में चन्द विजयी रहे। चन्दों ने चम्पावत को अपनी राजधानी बनाया। प्रारंभ में चम्पावत के आसपास के क्षेत्र ही इनके अधीन थे लेकिन बाद में वर्तमान का नैनीताल, बागेश्वर, पिथौरागढ़, अल्मोड़ा आदि क्षेत्र इनके अधीन हो गए|
1790 ई. में नेपाल के गोरखाओं ने चन्द राजा महेंद्र चन्द को हवालबाग के युद्ध में पराजित कर कुमाऊं पर अपना अधिकार कर लिया। इसके सांथ ही कुमाऊं में चन्द राजवंश का अंत हो गया|
गोरखा शासन :
चन्द राजाओं के पतन के बाद गोरखाओं के राज (कुमाऊं में 1790 से 1815 और गढ़वाल में 1804 से 1815 तक) में यहां के लोग खासे परेशान थे। गोर्खाली राज को उत्तराखंड के इतिहास का काला अध्याय माना जाता है। इस दौर में कढ़ाई दीप व पाथर दान के मूर्खतापूर्ण तरीकों से दण्ड देने के प्राविधान थे।
किसी व्यक्ति पर अपराध का शक होने पर उसका `पाथर दान´ के तहत पत्थरों से वजन लिया जाता और एक माह तक उसे बिना भोजन, केवल पानी देकर गुफा में रखा जाता। एक माह बाद उसका पुन: वजन लिया जाता, जो निश्चित ही भोजन न मिलने से पहले से कम होता, और इस आधार पर उसे दोषी मान लिया जाता व कड़ी सजा दी जाती। इसी प्रकार `कढ़ाई दीप´ के तहत भी व्यक्ति के हाथ खौलते घी में डाले जाते और जलने पर उसे दोषी मान लिया जाता था।
ब्रिटिश शासनकाल :
समस्त कुमाऊं क्षेत्र पर अधिकार करने के पश्चात गोरखाओं ने गढ़वाल क्षेत्र भी पर भी आक्रमण कर दिया। गोरखाओं से युद्ध करते हुए तत्कालीन राजा प्रद्युमन साह मारे गए। गढ़वाल क्षेत्र पर गोरखाओं का अधिकार हो गया। इसके पश्चात प्रद्युमन शाह के पुत्र सुदर्शन शाह ने गढ़वाल क्षेत्र को वापस पाने के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी की मदद ली।
1815 में सुगौली संधि के तहत ईस्ट इंडिया कंपनी ने गोरखाओं को पराजित किया। ब्रिटिश सरकार ने कुमाऊं, देहरादून और पूर्व गढ़वाल को ब्रिटिश साम्राज्य शामिल कर लिया। पश्चिमी गढ़वाल सुदर्शन शाह को दिया और यह क्षेत्र टिहरी रियासत के नाम से जाना जाने लगा। आजादी के बाद 1949 में टिहरी राज्य को उत्तर प्रदेश में मिलाकर इसे एक जिला घोषित कर दिया गया।