Cultureउत्तराखंड का लोकपर्व घी-त्यार की कुछ खास बातें  

उत्तराखंड का लोकपर्व घी-त्यार की कुछ खास बातें  

घी-त्यार यानी घृत संक्रांति 

देवभूमि उत्तराखंड में प्रत्येक हिंदी मास के 1 गते को त्योहार के रूप मे मनाने का प्रचलन है। घी-त्यार यानी घृत संक्रांति भी ऐसा ही त्योहार है जो भाद्रपद मास की संक्रान्ति को मनाया जाता है। सभी त्योहारों की तरह ही इस दिन भी लोग तरह-तरह के व्यंजन बनाते हैं और इसका आनंद लेते हैं। लेकिन इस त्योहार की ख़ास बात है कि इस दिन घी खाना ज़रूरी होता है। मान्यता है कि जो लोग इस दिन घी नहीं खाते हैं उन्हें अगले जन्म में घोंगा (घनेल) बनना पड़ता है।

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इस दिन सूर्य ‘सिंह राशि’ में प्रवेश करता है इसलिए इसे ‘सिंह संक्रांति’ भी कहा जाता हैं। मूलतः यह एक ऋतु उत्सव है। जिसे खेतीबाड़ी से जुड़े किसान व पशुपालक उत्साहपूर्वक मनाते हैं। संक्राति की पूर्वसंध्या से ही त्योहार का आगाज हो जाता है। पूर्वसंध्या यानी 30 गते को लोग तरह तरह के व्यंजन बनाते हैं और खूब घी दही के साथ त्योहार का आनंद लेते हैं। इसी तरह 1 गते संक्रांति के दिन भी सभी तरह के देवताओं की पूजा और ओलग देने के बाद पकवानों का आनंद लिया जाता है।

घी का सेवन करना ज़रूरी

इस त्योहार की ख़ास बात है कि इस दिन घी का सेवन करना ज़रूरी होता है। लोग घी खाने के अलावा लोग सिर, हाथ, पाँव, कोहनी, घुटनो पर भी घी लगाते हैं। मान्यता है कि जो लोग इस दिन घी नहीं खाते हैं वे अगले जनम मेन घोंगे (घनेल) बनते है। यहाँ तक कि नवजात बच्चों के सिर और पांव के तलुवों में भी घी लगाया जाता है। मान्यता यह भी है कि इस दिन घी का सेवन करने से ग्रहों के अशुभ प्रभाव कम होते हैं। जो व्यक्ति इस दिन घी का सेवन करता उस व्यक्ति के जीवन पर राहु- केतु का नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता। 

अच्छे फ़सल की कामना 

घी-त्यार खेती बाड़ी और पशु के पालन से जुड़ा हुआ लोक पर्व है। प्राचीन काल से ही उत्तराखंडम में लोकपर्वों को कृषि उत्सव के रूप मनाने का प्रचलन रहा है। इस समय पहाड़ के हरे भरे सुंदर खेतों में फ़सलों की बालियाँ बालियां लहलहाना शुरु कर देती हैं। साथ ही संतरे, नींबू, माल्टा आदि अन्य स्थनीय फल भी आकार लेने लगते हैं। बुजुर्गों के अनुसार इस दिन से अखरोट में घी का संचार होता है यानी अखरोट खाने के लिए तैयार होने लगते हैं। अपने हरे भरे खेतों में लहलहाती बालियाँ और पेड़ों पर तैयार होते फलों को देखते हुए लोग अच्छी उपज की कामना हेतु यह त्यौहार (घी-त्योहार) मनाते हैं। 

’ओलगे’ की प्रथा

घी-त्यार को घृत संक्रान्ति, सिंह संक्रान्ति या ओलगी संकरात भी कहा जाता है। कई जगहों पर लोग इस दिन अपने संबधियो से मिलने जाते हैं और उन्हें  उपहार स्वरूप दही-दूध घी फल मिठाई सब्ज़ियाँ आदि भेंट करते हैं। जिसे ओलगा (ओग) कहा जाता है। 

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राजदरबार को भेंट के बदले पुरस्कार

चन्द राजवंश के समय में शिल्पज्ञ लोग इस दिन अपनी कारीगरी तथा दस्तकारी की चीजों को राजदरबार में भेंट करते थे । जिसके बदले मेन राजदरबार की तरफ़ से उन्हें पुरस्कार दिया जाता था। इसी तरह अन्य लोग भी साग-सब्जी, फल-फूल, धिनाली (दूध व उससे निर्मित पदार्थ), मिठाइयाँ आदि राजदरबार में भेंट करते थे। यह ’ओलगे’ की प्रथा कहलाती थी। 

राजशाही खत्म होने के बाद गांव के पधानों के घर में यह सब चीजें ले जाने का प्रचलन था, लेकिन अब यह प्रथा विलुप्ति की कगार पर है। इसी तरह गावों के अन्य शिल्पकार इस दिन लोगों को लोहे के औजार जैसे दरांती, कुदाल, चिमटा या जो भी उन्होंने बनाया हो भेंट देते थे। इसके बदले में लोग उन्हें अनाज और रुपए आदि देते थे। आज भी कई जगहों पर यह प्रथा प्रचलित है हालाँकि यह प्रथा भी विलुप्त होने के कगार पर ही है। 

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ईष्ट देवों को ‘ओलग’ देने की परम्परा

इस दिन स्थनीय लोगों द्वारा अपने ईष्ट देवताओं को भी ‘ओलग’ देने की परम्परा है। इस दिन कृषक अपने ईष्ट देवताओं को अपने खेतों में तैयार सब्ज़ियों फलों से ओलग’ देतें हैं। इस दिन नयी फ़सलों को सर्वप्रथम देवी देवतावों के चड़ाने के बाद से ही इनका सेवन किया जाता है। लोग अपने खेतों मेन तैयार गाबा (अरबी के बिना खिले पत्ते) मक्के, आदि अपने ईष्ट को अर्पित करते हैं। इससे पूर्व न तो गाबों को तोड़ा जाता है और न खाया ही जाता है। 

कार्यक्रमों का आयोजन 

घी त्यार के दिन लोग तरह तरह के व्यंजनों और घी का आनंद तो लेते ही हैं साथ ही कई जगहों पर लोक कार्यक्रमों का भी आयोजन किया जाता है। इन कार्यक्रमों में बड़ी संख्या में स्थानीय लोग भाग लेते हैं। हमारे लोकपर्व और त्योहार हमारी सांस्कृतिक विरासत हैं।इस तरह के कार्यक्रम पहाड़ी लोकपर्वों को सहेजकर रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

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