Informationउत्तराखंड का इतिहास : समझें सभी ऐतिहासिक घटनाओं को आसानी से

उत्तराखंड का इतिहास : समझें सभी ऐतिहासिक घटनाओं को आसानी से

हिमालय की गोद में स्थित उत्तराखंड की भूमि अनादि काल से ही अनेकों रोचक और आश्चर्यजनक घटनाओं की गवाह रही है। विभिन्न कालखंडो में देवताओं, ऋषि मुनियों और मानव जाति की गतिविधियों के परिणामस्वरूप आधुनिक उत्तराखंड का सृजन हुआ। इन गतिविधियों और घटनाओं को हम उत्तराखंड के इतिहास के माध्यम से समझते सकते हैं। उत्तराखंड के इतिहास को जानने से पहले नज़र डालते हैं उत्तराखंड राज्य के संक्षिप्त परिचय पर …. 

उत्तराखंड का परिचय 

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भारत का उत्तरी राज्य ‘उत्तराखंड’ संस्कृत के शब्दों ‘उत्तर’ और ‘खण्ड’ से मिलकर बना है। जिसका मतलब है ‘उत्तर में स्थित भूमि’ यानी उत्तराखंड। उत्तराखंड की भूमि में अति प्राचीन काल से ही देवी देवताओं का निवास होने के कारण इसे ‘देवभूमि’ भी कहा जाता है। 9 नवम्बर 2000 को भारत के सत्ताइसवें राज्य के रूप में उत्तराखंड (उत्तरांचल) का सृजन हुआ। सन 2000 से 2006 तक यह ‘उत्तरांचल’ के नाम से जाना जाता था। 1 जनवरी सन 2007 को उत्तराँचल का नाम ‘उत्तराखंड’ किया गया। 

प्रशासन की दृष्टि से राज्य को दो मंडलों गढ़वाल और कुमाऊँ मंडल में बांटा गया है। राज्य में कुल 13 जिले हैं जिसमें से 6 कुमाऊँ और 7 जिले गढ़वाल मंडल में स्थित हैं। राज्य का कुल क्षेत्रफल 53483 वर्ग किमी है। राज्य में कुल 5 लोकसभा और 71  विधानसभा शीट हैं। उत्तराखंड की राजधानी देहरादून में स्थित है। ‘गैरसैण’ उत्तराखंड राज्य की ग्रीष्मकालीन राजधानी स्थित है। ‘गैरसैंण’ उत्तराखंड के चमोली जिले में राजधानी देहरादून करीब 260 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।

उत्तराखंड का इतिहास 

उत्तरखण्ड का इतिहास अत्यधिक प्राचीन है। यहाँ से प्राप्त पुरातात्विक अवशेष इस बात का प्रमाण हैं कि इस क्षेत्र में पाषाण। काल से ही सभ्यताओं का विकास आरम्भ हो चुका था। उत्तराखंड में समय-समय पर मिले कई पुरातात्विक स्रोतों के माध्यम से यहां पर मानव जाति के इतिहास के बारे में पता चलता है। उत्तराखंड के इतिहास को मुख्यतः तीन चरणों विभाजित किया जाता है… 

  • 1- प्रागैतिहासिक काल – 3000 ई. पूर्व पहले. 
  • 2- आद्य ऐतिहासिक काल- 3000 ई. पूर्व से 600 ई. पूर्व
  • 3- ऐतिहासिक काल –  600 ई. पूर्व  से वर्तमान

प्रागैतिहासिक काल

प्रागैतिहासिक काल को पाषाण काल भी कहा जाता है। पुरातत्व की दृष्टि से पाषाण काल मानव इतिहास का प्राचीनतम युग है। पाषाण युग में मानव गुफाओं में रहता था और उसका जीवन पत्थरों पर अत्यधिक आश्रित था। इसलिए प्रागैतिहासिक काल की जानकारी हमें पाषाण कालीन उपकरण, गुफाओ, शैल चित्रों ,धातु उपकरणों, कंकाल, आदि पुरातात्विक खोज से प्राप्त होती है। 

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इस काल की संस्कृतियों का भास सर्वप्रथम पाषाण उपकरणों से होता है जिनका उपयोग मानव ने अपने विकास के विभिन्न चरणों मेंं किया। उत्तराखंड की भूमि में पाषाण कालीन मानव की उपस्थिति के कई प्रमाण मिलते हैं। इस काल के सबसे अधिक श्रोत अल्मोड़ा तथा चमोली जनपद में प्राप्त हुए हैं। शोधकर्ताओं को यहां पर गुफायें, शैल चित्र, कंकाल, धातु उपकरण आदि प्राप्त हुए हैं। इन उपकरणों में हस्तकुठार, चोपर, फ्लैक्स, स्कैपर इत्यादि आदि मुख्य है।

उत्तराखण्ड में प्राक् ऐतिहासिक काल के मुख्य श्रोतों में लखु उड्यार और गवारख्या गुफा प्रमुख हैं-

लखु उड्यार

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अल्मोड़ा जिले में स्थित लखु उड्यार उत्तराखंड में प्रागैतिहासिक काल प्रमुख और महत्वपूर्ण स्रोत है। लखु उड्यार में नागफनी के आकार का यह भव्य शिलाश्रय है। यहाँ सफेद, गेरू, गुलाबी और काले रंगों से पाषाण कालीन चित्र बने हैं। इसके आलावा अल्मोड़ा जनपद में ही फड़कानौली, फलसीमा, ल्वेथाप, पेटशाल, कालामाटी एवं मल्ला पैनाली में भी पाषाणकालीन शिलाश्रय मिलते हैं।

ग्वारख्या गुफा

लखु उड्यार के बाद उत्तराखंड के ‘गढ़वाल मंडल’ के चमोली जिले में स्थित ग्वारख्या गुफा प्रागैतिहासिक काल का महत्वपूर्ण स्रोत है। ग्वारख्या गुफा चमोली में अलकनंदा नदी के किनारे डुग्री गाँव में स्थित है। यहाँ पर मानव, भेड़, लोमड़ी, बारहसिंगा आदि के पाषाणकालीन रंगीन चित्र प्राप्त हुए। 

चमोली जनपद में ही मलारी और किमनी गांव में भी प्रागेतिहासिक काल के प्रमाण मिले हैं। मलारी गांव में धातु के बर्तन जानवरों के अंग और सोने का मुखावरण प्राप्त हुआ। किमनी गांव में शोधकर्ताओं को सफ़ेद रंग के जानवरों और हथियारों के चित्र प्राप्त हुए।

आद्य ऐतिहासिक काल – 3000 ई. पूर्व से 600 ई. पूर्व 

3000 ई. पूर्व से 600 ई. पूर्व को आद्य ऐतिहासिक काल जाता है। आद्य ऐतिहासिक काल की जानकारी के स्रोत पुरातात्विक और लिखित हैं। पौराणिक ग्रंथ, कप मार्क्स, ताम्र उपकरण, महापाषाणीय शवाधान, चित्रित धूसर मृदभांड इस काल की जानकारी के स्रोत हैं।

आद्य ऐतिहासिक काल के मुख्य स्रोत पौराणिक ग्रंथ हैं। वेद, पुराण, ब्राहम्ण ग्रन्थों में आदि से आद्य ऐतिहासिक काल की जानकारी मिलती है।उत्तराखंड का पहला उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। ऋग्वेद में उत्तराखंड को मनीषियों की भूमि यानि देवभूमि कहा गया है। ऐतरेय ब्राह्मण में इस क्षेत्र को उत्तर कुरु कहा गया है। कौशितकी ब्राह्मण में उत्तराखंड को ‘बद्रिकाश्रम’ के नाम से वर्णित किया गया है।

महाभारत में उल्लेख

महाभारत के आदि पर्व में उत्तर कुरु तथा दक्षिण कुरु, दो देशों का उल्लेख किया गया है। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में उत्तर-कुरु देश से गंगा जल, पुष्प, बलसम्पन्न औषधियां, भार में पिपीलिका स्वर्ण तथा मधु भेंट में आया था। महाभारत काल में इस प्रदेश की कुछ राजनीतिक इकाइयों का भी उल्लेख है। आदिपर्व के अनुसार अर्जुन का ऐरावतकुल के नागराज कौरव्य की कन्या उलूपी से विवाह गंगाद्वार में हुआ था। 

इसी प्रकार ‘कुणिन्द-विषय’ का उल्लेख, सभापर्व, आरण्यक पर्व एवं भीष्म पर्व तीनों में मिलता है। इसका राजा कुणिन्द सुबाहु बताया गया है। महाभारत काल में वनवास काल से लौटते समय पांडवों ने इसी सुबाहुपुर में एक रात्रि विश्राम किया था। आधुनिक गढ़वाल के श्रीनगर को तत्कालीन सुबाहुपुर माना जाता है।

महाभारत के अनसुार अर्जुन का विवाह नागराज कौरव्य की पुत्री उलूपी से गंगाद्वार (हरिद्वार) में हुआ था। महाभारत के सभापर्व, भीष्मपर्व व अरण्यपर्व में कुणिदों का वर्णन मिलता है। नागराज कौरव्य का राज्य हरिद्वार में सतलज से अलकनन्दा के मध्य ज्ञात होता है। इसी प्रकार कुणिन्द राजा सुबाहु की राजधानी श्रीनगर अथवा सुबाहुपुर में स्थापित थी। मन्दाकिनी के उत्तरी भाग में बाणसुर का राज्य की जानकारी मिलती है।

स्कंद पुराण : आद्य ऐतिहासिक काल का मुख्य स्रोत मुख्य स्रोत

वेदों में उत्तराखंड के गढ़वाल प्रान्त का वर्णन तो मिलता है लेकिन कुमाऊँ के बारे में व्यापक जानकारी नहीं है। इसलिए उत्तराखंड में आद्य ऐतिहासिक काल का मुख्य स्रोत स्कंद पुराण को माना जाता है। स्कन्द पुराण में कुमाऊँ और गढ़वाल को अलग अलग वर्णित किया गया है। स्कंद पुराण में कुमाऊं क्षेत्र को मानस खंड और गढ़वाल क्षेत्र को केदारखंड कहा गया है। स्कंद पुराण में दोनों खंडों की व्यापक जानकारी मिलती है।

ऐतिहासिक काल – 600 ई. पूर्व से वर्तमान

उत्तराखण्ड प्राचीन काल से अतिदुर्गम क्षेत्र रहा है अतः यहाँ पर किसी स्थायी सत्ता के स्थापित होने की कोई स्पष्ट जानकारी नहीं मिलती है। विभिन्न पुरातात्विक खोजो से प्राप्त हुए सिक्कों, अभिलेखों एवं ताम्रपत्रों के आधार पर इसके प्राचीन इतिहास की जानकारी मिलती है।

एतिहासिक काल में उत्तराखंड के कुमाऊं और गढ़वाल क्षेत्र पर कुणिन्द, गुप्त, कत्यूरी, चंद, पवार, पाल आदि राजवंशों ने बारी-बारी शासन किया। कई इतिहासकार का विभिन्न राजवंशों के समय काल को लेकर अलग-अलग मत हैं। फिर भी उत्तराखंड के इतिहास को तत्कालीन गढ़वाल और कुमाऊँ के इतिहास के माध्यम से आसानी से समझा जा सकता है।

कुणिन्द शासनकाल:

अभिलेखों के अनुसार कुणिन्द उत्तराखंड पर शासन करने वाली पहली राजनैतिक शक्ति थी। कुणिन्द राजवंश का शासन काल 200 ई0 पू0 से 300 ई0 पू0 माना जाता है। अभिलेखों के अनुसार कुणिन्द राजवंश की एक राजधानी कालकूट थी. कुणिन्द राजवंश के जानकारी का मुख्य स्रोत इस वंश की मुद्राएं हैं। कुणिंद राजवंश इन क़ालीन इन मुद्राओं को इतिहासकार तीन प्रकारों में विभाजित करते हैं…

अमोधभूति प्रकार

ये मुद्राएं तत्कालीन राजा अमोधभूति के शासनकाल के बारे में जानकारी देते हैं। इन मुद्राओं से जानकारी मिलती है कि ‘अमोधभूति प्रकार’ की मुद्राएं तत्कालीन राजा के नाम से थी। महाराजा अमोधभूति कुणिन्दों के सबसे प्रतापी राजा थे। अमोधभूति कुणिंद राजवंश के एकलौते राजा थे जिनके समय में रजत (चांदी) की मुद्राएं प्रचलित थी। 

अल्मोड़ा प्रकार

ये मुद्राएं उत्तराखण्ड में मिली हैं इनमें से अल्मोड़ा जनपद में मिली चार मुद्राएं ब्रिटिश संग्रहालय लंदन में हैं। इसके आलावा कत्यूर घाटी में 54 मुद्राएं मिली हैं।

अलमोड प्रकार की ये मुद्राएँ उत्तराखंड के अलमोड ज़िले में प्राप्त हुई

चत्रेश्वर प्रकार

माना जाता है कि ये मुद्राएं कुणिन्दों ने अपने अधिष्ठाता देव चत्रेश्वर अथवा छत्रेश्वर के नाम पर निर्गत की होंगी।

कर्तपुर राज्य की स्थापना

कुणिंद राजवंश का साम्राज्य मूलतः गंगा और यमुना के उपजाऊ क्षेत्र के आस-पास था। प्रारभं में कुणिंद मौर्य साम्राज्य के अधीन थे। अमोघभूति की मृत्यु के बाद शकों ने इनके मैदानी भागों पर अधिकार कर लिया। शकों के बाद तराई भागों में कुषाणों ने अपना अधिकार स्थापित किया।

कुणिन्द शासनकाल के दौरान कर्तपुर राज्य की स्थापना हुई। जिसमें उत्तराखंड, हिमांचल प्रदेश तथा रोहिलखंड का उत्तरी भाग शामिल था। इसके पश्चात नागो ने कुणिन्दो को पराजित कर्तपुर राज्य पर अधिकार कर लिया। नागो के बाद कन्नोज के मौखरियो ने यहां पर शासन किया। इस वंश का अंतिम शासक गृह्वर्मा था। गृह्वर्मा को हर्षवर्धन ने पराजित कर उसकी हत्या कर दी और शासन अपने हाथ में ले लिया। 

कर्तिकेयपुर राजवंश :

हर्ष की मृत्यु के बाद यह क्षेत्र राजनैतिक विघटन का शिकार हुआ। फलस्वरूप कई छोटी-छोटी शक्तियों ने अपने छोटे-छोटे राज्य स्थापित कर लिए। इसमें प्रमुख थे ब्रह्मपुर, शत्रुघ्न एवं गोविषाण राज्य। लगभग 700 ई. के आस-पास कत्यूरीघाटी में वसंतदवे ने एक स्वतत्रं राज्य कार्तिकेयपुर की स्थापना की। इस राज्य के अन्तर्गत गढ़वाल, कुमाऊँ एवं रूहेलखण्ड का विस्तृत भूभाग था।

कार्तिकेयपुर वंश के तीन से अधिक परिवारों ने उत्तराखंड पर 700 ई. से 1030 ई. तक लगभग 300 साल तक शासन किया। इस राजवंश को उत्तराखंड का प्रथम ऐतिहासिक राजवंश कहा जाता है। इस वंश का प्रथम शासक बसंतदेव था। कर्तिकेयपुर शासनकाल में ही आदि गुरु शंकराचार्य उत्तराखंड आये थे। उन्होंने बद्रीनाथ व केदारनाथ मंदिरों का पुनरुद्धार कराया। 820 ई. में केदारनाथ में उन्होंने अपने प्राणों का त्याग किया। 

परमार वंश:

कनकपाल को परमार (पंवार) वंश का संस्थापक माना जाता है। कनकपाल के मूल को लेकर एतिहासकारों के मत भिन्न हैं । एक मत के अनुसार 9 वीं शताब्दी तक गढ़वाल में 54 अलग अलग छोटे बड़़े गड़़ों में विभाजित था। इनमें सबसे शक्तिशाली चांदपुर गड़ के राजा भानुप्रताप ने मालवा के शासक कनकपाल से अपनी बेटी का विवाह किया। कनकपाल ने 888 ई. में चाँदपुरगढ़ (चमोली) में परमार वंश की नींव रखीं। इसी वंश के 37वें राजा अजयपाल ने सभी गढ़- राजाओं को जीतकर गढ़वाल राज्य का एकीकरण किया। 

कत्यूरी शासनकाल :

कत्यूरी राजवंश भारत के उत्तराखण्ड राज्य का एक मध्ययुगीन राजवंश था। उत्तराखंड में गढ़वाल व कुमाऊं पर कत्यूरियों का शासनकाल सन् 740 ई. से 1000 ई. तक रहा। उन्होंने अपने राज्य को ‘कूर्मांचल’ कहा, अर्थात ‘कूर्म की भूमि’। जिससे इस स्थान को इसका वर्तमान नाम, कुमाऊँ मिला। कत्यूरी वंश का अंतिम शासक ब्रह्मदेव था। ब्रह्मदेव एक अत्याचारी शासक था।

चन्द राजवंश :

कुमाऊं में चन्द और कत्यूरी प्रारम्भ में समकालीन थे और उनमें सत्ता के लिए संघर्ष चला जिसमें अन्त में चन्द विजयी रहे। चन्दों ने चम्पावत को अपनी राजधानी बनाया। प्रारंभ में चम्पावत के आसपास के क्षेत्र ही इनके अधीन थे लेकिन बाद में वर्तमान का नैनीताल, बागेश्वर, पिथौरागढ़, अल्मोड़ा आदि क्षेत्र भी इनके अधीन हो गए|

1790 ई. में नेपाल के गोरखाओं ने चन्द राजा महेंद्र चन्द को हवालबाग के युद्ध में पराजित कर कुमाऊं पर अपना अधिकार कर लिया। इस हार के साथ ही कुमाऊं में चन्द राजवंश का अंत हो गया और गोरखाओं ने कुमाऊँ और गढ़वाल में अपने राज्य का विस्तार किया।

गोरखा शासन :

चन्द राजाओं के पतन के बाद गोरखाओं के राज (कुमाऊं में 1790 से 1815 और गढ़वाल में 1804 से 1815 तक) में यहां के लोग खासे परेशान थे। गोर्खाली राज को उत्तराखंड के इतिहास का काला अध्याय माना जाता है।इस दौर में कढ़ाई दीप व पाथर दान के मूर्खतापूर्ण तरीकों से दण्ड देने के प्राविधान थे।

किसी व्यक्ति पर अपराध का शक होने पर उसका `पाथर दान´ के तहत पत्थरों से वजन लिया जाता और एक माह तक उसे बिना भोजन, केवल पानी देकर गुफा में रखा जाता था। एक माह बाद उसका पुन: वजन लिया जाता, जो निश्चित ही भोजन न मिलने से पहले से कम होता, और इस आधार पर उसे दोषी मान लिया जाता व कड़ी सजा दी जाती। इसी प्रकार `कढ़ाई दीप´ के तहत भी व्यक्ति के हाथ खौलते घी में डाले जाते और जलने पर उसे दोषी मान लिया जाता था। 

ब्रिटिश शासनकाल :

समस्त कुमाऊं क्षेत्र पर अधिकार करने के पश्चात गोरखाओं ने गढ़वाल क्षेत्र भी पर भी आक्रमण कर दिया। गोरखाओं से युद्ध करते हुए तत्कालीन राजा प्रद्युमन साह मारे गए। जिससे गढ़वाल क्षेत्र पर गोरखाओं का अधिकार हो गया। इसके पश्चात प्रद्युमन शाह के पुत्र सुदर्शन शाह ने गढ़वाल क्षेत्र को वापस पाने के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी की मदद ली। ब्रिटिश सेना ने की मदद की और गोरखाओं को युद्ध में पराजित किया।

1815 में सुगौली संधि के तहत गोरखाओं ने को यह राज्य ईस्ट इंडिया कंपनी को सौंप दिया। ब्रिटिश सरकार ने कुमाऊं, देहरादून और पूर्व गढ़वाल को ब्रिटिश साम्राज्य शामिल कर लिया। पश्चिमी गढ़वाल सुदर्शन शाह को दिया और यह क्षेत्र टिहरी रियासत के नाम से जाना जाने लगा। आजादी के बाद 1949 में टिहरी राज्य को उत्तर प्रदेश में मिलाकर इसे एक जिला घोषित कर दिया गया।

आधुनिक उत्तराखंड :

9 नवम्बर 2000 को कई वर्षों के आन्दोलन के पश्चात भारत के सत्ताइसवें राज्य के रूप में उत्तराखंड का सृजन हुआ। सन 2000  से 2006 तक यह उत्तरांचल के नाम से जाना जाता था। जनवरी 2007 में स्थानीय लोगों की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए राज्य का आधिकारिक नाम बदलकर उत्तराखण्ड किया गया।

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